How to file civil case – भारत में सिविल केस दर्ज कराने के लिए एक प्रोसीजर बनाया गया है, अगर उस प्रोसीजर को फॉलो नहीं किया जाता तो रजिस्ट्रार के पास केस को खारिज करने का अधिकार होता है। आम आदमी की भाषा में अभियोग का अर्थ होता है लिखित शिकायत या फिर आरोप, जो व्यक्ति मुकदमा दर्ज कराता है उसे वादी अर्थात Plaintiff और जिसके खिलाफ केस दर्ज किया जाता है उसे प्रतिवादी अर्थात Defendant कहा जाता है।
शिकायतकर्ता को अपना अभियोग सीमा अधिनियम में निर्धारित समय सीमा के भीतर कराना होता है। शिकायत की कॉपी टाइप होनी चाहिए और उस पर न्यायालय का नाम, शिकायत की प्रकृति, पक्षों के नाम और उनका पता स्पष्ट रुप से लिखा होना चाहिए। शिकायत में वादी द्वारा शपथ पत्र भी संलग्न किया जाना चाहिए जिसमें यह कहा गया हो की शिकायत में लिखी गई सभी बातें सही हैं।
वकालतनामा –
यह एक ऐसा document है जिसके द्वारा कोई पार्टी केस दर्ज करवाने के लिए वकील को अपनी ओर से प्रतिनिधित्व करने के लिए अधिकृत करता है। वकालतनामा में कुछ बातों का उल्लेख किया होता है जैसे कि किसी भी फैसले में client वकील को जिम्मेदार नहीं ठहरायेगा और client अदालती कार्यवाही के दौरान किए गए सभी खर्चों को खुद ही वहन करेगा। जब तक वकील को पूरी फीस का भुगतान नहीं किया जाता तब तक उसे वाद से संबंधित सभी दस्तावेज को अपने पास रखने का अधिकार होगा। Client कोर्ट कारवाही में किसी भी स्तर पर वकील को छोड़ने के लिए स्वतंत्र होता है। वकील को अदालत में सुनवाई के दौरान मुवक्किल के हित में अपने दम पर निर्णय लेने का पूरा अधिकार होता है।
वकालतनामा को petition की आखरी पृष्ठ के साथ जोड़कर अदालत में रिकॉर्ड के रूप में रखा जाता है। वकालतनामा तैयार करवाने के लिए कोई भी फीस की आवश्यकता नहीं होती हालांकि आजकल दिल्ली हाई कोर्ट के नियमों के अनुसार वकालतनामा के साथ ₹10 का अधिवक्ता कल्याण डाक टिकट लगाया जाता है।
इसके बाद पहली सुनवाई के लिए वादी को एक तारीख दी जाती, इस तारीख पर अदालत यह तय करता है कि कार्यवाही को आगे जारी रखना है या नहीं। अगर यह निर्णय होता है कि इस मामले में कोई सच्चाई नहीं है तो प्रतिवादी को बुलाये बिना ही केस को खारिज कर दिया जाता है लेकिन अदालत को लगता है कि इस मामले में कोई सच्चाई है तो कार्यवाही आगे बढ़ाई जाती है।
कोर्ट के प्रोसीजर –
सुनवाई के पहले दिन अगर कोर्ट को लगता है कि इस मामले में सच्चाई है तो वह प्रतिवादी को एक निश्चित तारीख तक अपना बहस दर्ज कराने के लिए नोटिस देता है। प्रतिवादी को नोटिस भेजने से पहले वादी को कुछ कार्य करने होते हैं, जैसे कि अदालती कार्यवाही के लिए आवश्यक शुल्क का भुगतान करना होता है और कोर्ट में हर एक प्रतिवादी के लिए अपने पिटिशन की दो कॉपियां जमा करानी होती है। सभी प्रतिवादी के पास जमा किए गए पिटिशन की दो कॉपियों में से एक को रजिस्टर्ड डाक द्वारा भेजा जाता है जबकि दूसरी कॉपी को साधारण पोस्ट द्वारा भेजा जाता है।
लिखित बयान –
जब प्रतिवादी को नोटिस जारी कर दिया जाता है तो उसे नोटिस में दर्ज की गई तारीख पर कोर्ट में पेश होना अनिवार्य होता है। ऐसी तारीख से पहले प्रतिवादी को अपना लिखित बयान दर्ज कराना होता है अर्थात उसे 30 दिन के भीतर कोर्ट द्वारा दिए गए समय सीमा के भीतर ही वादी द्वारा लगाए गए आरोपों के खिलाफ अपना बचाव तैयार करना पड़ता है। लिखित बयान में विशेष रूप से उन आरोपों को इंकार करना चाहिए जिनके बारे में प्रतिवादी सोचता है कि वह झूठ है।
यदि लिखित बयान में किसी विशेष आरोप से इनकार नहीं किया जाता तो ऐसा समझा जाता है कि प्रतिवादी उस आरोप को स्वीकार्य करता है और लिखित बयान में प्रतिवादी का शपथ पत्र भी संलग्न होना चाहिए जिसमें यह कहा गया हो कि लिखित बयान में लिखी गई सारी बातें सच है। लिखित बयान दर्ज कराने के लिए निर्धारित समय सीमा 30 दिनों की अवधि है और कोर्ट की अनुमति से 90 दिन तक बढ़ाई जा सकती है।
प्रत्युत्तर –
प्रत्युत्तर वह जवाब होता है जो कि वादी प्रतिवादी द्वारा लिखित बयान के खिलाफ दर्ज कराता है। प्रत्युत्तर में वादी को लिखित बयान में उठाए गए आरोपों से इनकार करना चाहिए। अगर प्रत्युत्तर में किसी विशेष आरोप से इनकार नहीं किया जाता तो ऐसा समझा जाता है कि वादी उस आरोप को स्वीकार्य करता है। प्रत्युत्तर में वादी का शपथ पत्र भी अटैच होता है जिसमें यह कहा जाता है कि प्रत्युत्तर में लिखी गई सभी बातें उसने सच लिखी है तो याचिका पूरी हो जाती है।
जब एक बार याचिका पूरी हो जाती है तो उसके बाद दोनों पार्टियों को उन दस्तावेजों को जमा कराने का अवसर दिया जाता है जिन पर वह भरोसा करते हैं और जो उनके दावे को सिद्ध करने के लिए आवश्यक है। अंतिम सुनवाई के दौरान ऐसे किसी दस्तावेज को मान्यता नहीं दी जाती, जिसे कोर्ट के सामने पेश नहीं किया गया है। एक बार दस्तावेज स्वीकार्य कर लेने के बाद वह कोर्ट के रिकॉर्ड का हिस्सा हो जाता है और उस पर वाद से संबंधित सभी तरह के विवरण जैसे कि पक्षों के नाम, वाद का शीर्षक अंकित कर दिया जाता है। कोर्ट में सभी दस्तावेज की ओरिजिनल कॉपी जमा कर ली जाती है और उनकी एक कॉपी विरोधी पक्ष को दे दी जाती है। इसके बाद कोर्ट द्वारा उन सभी मुद्दों को तैयार किया जाता है जिसके आधार पर बहस और गवाहों से पूछताछ की जाती है।
दोनों पार्टियों को केस दर्ज कराने के 15 दिन के भीतर या फिर कोर्ट द्वारा निर्देशित अन्य अवधि के भीतर अपने अपने गवाहों की सूची कोर्ट में पेश करनी होती है। दोनों पक्ष या तो गवाह को स्वयं बुलाते हैं या फिर अदालत उन्हें समन भेजकर कह सकती है। अगर कोर्ट किसी गवाह को समन भेजता है तो ऐसे गवाह को बुलाने के लिए सम्बंधित पक्ष को कोर्ट के पास पैसे जमा कराने पड़ते हैं जिसे की diet money कहा जाता है।
निर्धारित तारीख पर दोनों पक्षों द्वारा गवाह से पूछताछ की जाति। किसी पार्टी द्वारा अपने स्वयं के गवाहों से पूछताछ करने की प्रक्रिया को Examination of Chief कहा जाता है। जब कि किसी पार्टी द्वारा विरोधी पक्ष के गवाहों से पूछताछ करने के प्रोसीजर को क्रॉस एग्जामिनेशन कहा जाता है। जब गवाहों से पूछताछ की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है तो दस्तावेज की जांच कर ली जाती है और कोर्ट की अंतिम सुनवाई के लिए तारीख तय कर दी जाती है।
अंतिम सुनवाई के लिए निर्धारित तिथि को दोनों पक्ष अपने तर्क प्रस्तुत करते है और दोनों पक्षों को अपने तर्क प्रस्तुत करते समय वाद से सम्बंधित मुद्दों का ख्याल रखना पड़ता है। उसके बाद कोर्ट अपना अंतिम फैसला सुनाता है जिसे या तो उसी तारीख को या फिर कोर्ट द्वारा निर्धारित किसी दूसरी तारीख को सुनाया जाता है। जब भी किसी पार्टी के खिलाफ कोई आदेश पारित किया जाता है तो ऐसा नहीं होता कि उसके पास कोई उपाय नहीं होता, ऐसी पार्टी अपील रेफरेंस और रिव्यू के माध्यम से कार्यवाही को आगे बढ़ा सकती है।
यह भी जानें:
१- श्री मान राहुल पुत्र दिनेश व सुधीर पुत्र प्रदीप व अनिल व सुनील पुत्रगण राकेश ने एक बैनामा कराया १९७३ में गाटा संख्या २७०,२४७,२६३ और २६६ का जिस बैनामे में केवल नाम जैसे मैंने लिखा है उसी प्रकार लिखा है लेकिन कहीं भी हिस्सा नहीं लिखा गया है/
२- लेकिन राहुल ने १/३ सुधीर ने १/३ और अनिल ने १/६ और सुनील ने १/६ के हिसाब से गाटा संख्या २७० को पूरा बेंच दिया है सभी ने १/३ को अपना हिस्सा आधार मानकर बेचा है/
कुछ इस प्रकार दिनेश १/३ , सुधीर १/३ और अनिल व सुनील १/३
३- लेकिन ४० वर्ष बाद आज अनिल का कहना है की मेरा १/४ है
जैसे – दिनेश १/४ , सुधीर १/४, अनिल १/४ और सुनील १/४
४- हमारा कहना है की १९७३ का बैनामा है लिखने में कुछ गलतिया जरूर हुई है लेकिन हम सब ने १/३ को आधार मानकर बेचा है इसलिए १/३ होना चाहिए
अब मामला कोर्ट में है
५- सभी लोग एक हे परिवार के सदस्य है दिनेश के पिता और अनिल व सुनील के पिता सगे भाई है जिनका नाम राकेश है /
आप का विचार क्या कहता है किसका कितना हिस्सा होना चाहिए
मामला न्यायलय में है तो इसका फैसला न्यायलय द्वारा दिया जायेगा परन्तु हिस्सा नहीं लिखा हुआ है इसका मतलब सबका बराबर बराबर हिस्सेदारी होना चाहिए
आज से मैंने 8साल पहले मकान खरीदा था उस वक्त में और मेरा वकील और बेचान कर्ता था से मकान खरीदा था तब मैने उस वक़्त कोई दलाल नहीं देखा देखा आज वो 8 साल बाद घर पर आ कर पैसे मांगने लगा मैने कहा तेरे पास कोई लिखित में कोई लिखा हुआ ह तो बता और पैसा ले कर जा दलाल का तब उसने जगढा करने लगा और पास पड़े पत्थर उठाने लगा मैने पुलिस थाना। में f i r की लेकिन दो दिन हो गए ह f i r की कोई कारवाई नहीं हुई आप ही बताओ अब में क्या करू
कृप्या SP Office में पेटिशन दीजिये।