Mohori Bibee vs Dharmodas Ghosh वाद अवयस्क की संविदाओं की प्रकृति, उसके द्वारा कपटपूर्ण मिथ्या व्यपदेशन, उसके प्रति विबन्ध (Estoppel) के सिद्धान्त के लागू होने, संविदा अधिनियम को धारायें 64, 65 आदि से सम्बन्धित है।
तथ्य तथा विवाद – प्रत्यर्थी जो कि एक अवयस्क था, उसने कलकत्ता के एक ऋणदाता ब्रह्मोदत्त से यह कह कर ऋण प्राप्त किया कि वह वयस्क है तथा ऋण प्राप्त करने के लिए उसके पक्ष में एक बन्धक-विलेख (Mortgage Deed) लिख दिया था। जिस समय बन्धक के ऊपर अग्रिम धन देने के बारे में विचार किया जा रहा था, उभी समय ब्रह्मोदत्त के एजेन्ट केदारनाथ को यह सूचना मिली थी कि प्रत्यर्थी अवयस्क है; अत: वह विलेख को निष्पादित नहीं कर सकता। परन्तु फिर भी उसने धर्मोदास घोष से बन्धक विलेख निष्पादित करा लिया। तत्पश्चात् अवयस्क ने अपनी माता अभिभावक द्वारा ब्रह्मोदत्त के विरुद्ध एक वाद किया जिसमें न्यायालय से प्रार्थना की कि बन्धक-विलेख को रद्द किया जाय, क्योंकि जिस समय यह बंधक विलेख निष्पादित किया गया था, वह एक अवयस्क था। न्यायमूर्ति जेकिन्स (Jenkins, J.) जो परीक्षण-न्यायालय के न्यायाधीश थे, ने प्रत्यर्थी की उक्त प्रार्थना को स्वीकार करते हुए बन्धक-विलेख को रद्द कर दिया। इस आदेश के विरुद्ध अपील को भी उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया; अत: अपीलार्थी ने प्रिवी कौंसिल में अपील की। इस अपील को करने के समय ब्रह्मोदत्त की मृत्यु को चुकी थी। अत: उसकी उत्तराधिकारिणी मोहरी बीबी ने उसका स्थान ग्रहण कर लिया था। मोहरी बीबी की ओर से निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये गये –
(1) बंधक विलेख को रद्द करते समय न्यायालय को अवयस्क को बाध्य करना चाहिये था कि उसने उस विलेख के अन्तर्गत जो धन (10,500 रु० ) प्राप्त किये हैं, वह उसे लौटाये । इस तर्क के पक्ष में उन्होंने विशिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 (Specific Relief Act, 1877) का हवाला दिया जिसके अन्तर्गत न्यायालय को ऐसा आदेश पारित करने की शक्ति है।
( 2 ) संविदा अधिनियम की धारा 64 तथा 65 के अन्तर्गत प्रत्यर्थी को रद्द किये गये विलेख के अधीन प्राप्त किये गये धन को वापस लौटाने को बाध्य किया जा सकता है ।
(3) विबन्ध (Estoppel) के सिद्धान्त के अनुसार अवयस्क को जिसने कि अपने को अवयस्क कहा था, अब यह अनुमति नहीं दी जा सकती है कि वह यह तर्क करे कि संविदा करते समय वह अवयस्क था।
( 4) अवयस्क द्वारा की गयी संविदा शून्यकरणीय (voidable) होती है।
निर्णय – न्यायालय ने अपील को खारिज कर दिया।
प्रतिपादित नियम – (1) अवयस्क द्वारा की गयी संविदा शून्यकरणीय न होकर पूर्ण तथा प्रारम्भ से ही शून्य (void) होती है।
(2) अवयस्क के प्रति संविदा अधिनियम की धारा 64 तया 65 लागू नहीं होती है, क्योंकि इन धाराओं के लिए यह आवश्यक है कि संविदा के पक्षकार संविदा करने के लिए सक्षम होने चाहिये।
(3) इस मामले में विबन्ध का सिद्धान्त लागू नहीं हो सकता क्योंकि दोनों पक्षकारों को यह सूचना थी कि संविदा एक अवयस्क के साथ की जा रही है।
(4) विशिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1877 के अन्तर्गत अवयस्क को शून्य संविदा के अधीन प्राप्त किये गये लाभो को वापस लौटाने के लिये बाध्य किया जा सकता है। परन्तु इस वाद में न्यायालय ऐसा उचित नहीं समझता, क्योंकि जब धर्मोदास घोष को बन्धक ऋण दिया गया था तो अपीलार्थी को इस बात का पता था कि वह अवयस्क है।
निष्कर्ष – उपर्युक्त सिद्धान्तों के आधार पर प्रीवी काउन्सिल ने अपीलार्थी की अपील को खारिज कर दिया।
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